रविवार, 4 फ़रवरी 2018

Botiya janjati in uttarakahand in hindi


भोटिया जनजाति

जनजाति - अंग्रेजी भाषा के ट्राइब्स शब्द का हिन्दी रूपान्तरण जनजाति है। कुछ लोग उन्हे वनवासी अथवा आदिवासी के नाम से संबोधित करते है। तथा कुछ लोग उन्हे  आदिजाति या देशज समाज के नाम से जानते है।

विश्व के अनेक भागों में ऐसे अनेक समाज हैं जिन्हे जनजाति के नाम से जाना जाता है। ऐसे समाजों को सामान्यतः उनके पिछड़े होने के कारण तथा संास्कृतिक दृष्टिकोण से तत्कालीन यूरोपियन समाजों में हीन होने के कारण अलग किया गया था। परन्तु आज तक उन विशिष्टताओं को स्पष्ट नहीं किया जा सका है जिनके आधार पर उन्हे अन्य समाजों से अलग करके जनजाति की संज्ञा दी गई है। अलग -अलग स्थानों पर निवास करने वाले समाजों की सांस्कृतिक विशेषताएं भिन्न -भिन्न होती है। क्योंकि किसी भी क्षेत्र की संस्कृति वहाँ के निवासियांे तथा भौतिक पर्यावरण के बीच अंतक्रिया से लम्हों समय की अवधि में विकसित होनी है। और निरन्तर परिवर्तनशील रहती है।
जनजाति की परिभाषा - अनेक विद्वानों ने जनजाति को अलग-अलग शब्दों में परिभाषित किया है-
‘गिलि एवं गिलिन‘ ने जनजाति को परिभाषित करते हुए कहा है - कि “स्थानीय आदिम समूह के किसी भी संग्रह को जो किसी एक सामान्य क्षेत्र में निवास करता हो एक सामान्य भाषा बोलता हो तथा जिसकी एक सामान्य संस्कृति हो, उसे जनजाति कहा जायगा“
रेमन्ड फर्थ के अनुसार - जनजाति एक प्रकार की संस्कृति का समूह है जो साधारणतः एक भूखण्ड पर निवास करते हैं। एक भाषा बोलते है तथा एक ही प्रकार की परम्पराओं एवं संस्थाओं का पालन करते है और एक ही सरकार के प्रति उत्तरदायी होते है।
इसी प्रकार राल्फ लिंटन ने जनजाति के लिए “एकता की भावना“ को एक आर्दश तत्व माना है।
उत्तराखण्ड की जनजातियां -  सन् 2000 के नवम्बर माह में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य को भारत सरकार ने दो पृथक राज्यों मे विभाजित कर दिया एक का नाम उत्तर प्रदेश ही रखा गया तथा दूसरे राज्य को उत्तरांचल नाम दिया गया जो बाद में बदलकर उत्तराखण्ड नाम से जाना जाने लगा।
उत्तराखण्ड मे पाँच जनजातियाँ निवासरत है। जो उत्तर प्रदेश के विभाजन के पूर्व उत्तर प्रदेश की जनजातियोें के नाम से जानी जाती थी। ये जनजातियां क्रमशः थारू, बोक्सा, भोटिया, जौनसारी, खस, तथा राजी है। इनमें से बोक्सा जनजाति तथा राजी जनजाति को आदिम जनजाति दर्जा प्राप्त है। तथा शेष थारू भोटिया और जौनसारी जनजातियां अनुसूचित जनजातियों की श्रेणी में आती है।
उत्तराखण्ड में सन् 2001 की जनगणना के अनुसार प्रदेश की कुल जनसंख्या 84,79,562 है जिसमें जनजातियों की संख्या 2,56,129 है। इस प्रकार राज्य की कुल जनसंख्या में जनजातियों का प्रतिशत 3.02 है एवं संपूर्ण देश की आबादी में इनका प्रतिशत 0.03 प्रतिशत है।
उत्तराखण्ड की पाँच जनजातियां-
(1)   थारू जनजाति
(2)   भोटिया जनजाति
(3)   जौनसारी जनजाति
(4)   बुक्सा जनजाति
(5)   राजी जनजाति
भोटिया जनजाति-
भोटिया  जनजाति उत्तराखण्ड की अति प्राचीन और महत्वपूर्ण जनजाति है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड में भोटिया जनजाति की जनसंख्या 36422 है जो कि प्रदेश की कुल जनजाति का 14.22 प्रतिशत है। उत्तराखण्ड के गढवाल मंडल के उत्तरकाशी तथा चमोली जिलों में भोटिया जनजाति अपनी विशिष्ट सभ्यता तथा संस्कृति को समेटे हुए सदियों से निवास करती आ रही है। मध्य हिमालय के कुमाऊं और गढवाल मण्डलों के उत्तरी भाग का लगभग 4000वर्ग मील का त्रिभुजाकार क्षेत्र इनके नाम पर भोटिया प्रदेश के नाम से जाना जाता है। भोटिया लोगों का निवास नदियों के तटों पर है क्यों कि इस क्षेत्र का अधिकांश भाग पथरीला एवं धरातलीय दृष्टि से ऊबड़ -खाबड़ है। इनके ग्राम समुद्र तल से 10,000 फीट से भी अधिक ऊँचाई पर स्थित है जहाँ की जलवायु शीत प्रधान है।
उत्तपत्ति- भोटिया जनजाति की उत्तपत्ति के संबंध में अलग-अलग विद्वानों के विचार अलग-अलग है। पौराणिक साहित्य में वर्णित आधार पर ज्ञात होता है कि आज से लगभग 400000 वर्ष पूर्व हिमालय के इस क्षेत्र में मध्य ऐशिया को छोड़कर तिब्बत मार्ग से कुण्न्दि , किरात, दग्ध, खस आदि जातियाँ पहुँची थी। इन्ही जातियों ने इस क्षेत्र को उपयुक्त समझकर यहाँ स्थायी रूप से रहना प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रक्रिया में भोटिया जनजाति ने भी यहाँ निवास करना प्रारम्भ किया है।
एटकिसंन के अनुसार तिब्बत क्षेत्र के हुणिया जनजाति के समान भोटिया जनजाति उत्तराखण्ड में निवास करती है। उनके अनुसार इन दोनों जनजातियों का संबंध खस जाति से है। आगे उनका कहना है कि भारत में ‘आर्यो‘ का आगमन गढ़वाल एवं कुमाऊ क्षेत्र से हुआ है अतः ये लोग आर्यों के ही वशंज है।
   कुछ यूरोपियन विद्वानों जैसे हेमंडडोर्फ, शेररिंग आदि ने इस जनजाति को मंगोल जाति से संबंधित तिब्बती मूल माना है। उत्तरकाशी क्षेत्र में जो भोटिया लोग निवास करते है। वे बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं तथा चमोली क्षेत्र में निवासित भोटिया लोग वैसे तो हिन्दू धर्म को मानते हैं पर साथ में तिब्बती देवी-देवताओं की पूजा भी करते हैं। इसी से प्रतीत होता है है कि यह जनजाति तिब्बत से होकर इस क्षेत्र में निवासित हुई है।
भोटिया जनजाति में तीन वर्ग पाए जाते है। मारच्छा, तोलच्छा तथा जाड़। इनमें से मारच्छा किरात वंशी हैं, तोलच्छा अन्य जातियों जैसे - खस, किरात तथा बाहर से आए हुए लोगों में संसर्ग से बनी है एवं जाड़ भोटिया अपने आपको बौद्ध मानते है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि मूल भोटिया लोगांे की उत्पत्ति तिब्बती मार्ग से आने वाले मध्य एशिया के लोगों से हुई हैं।
शरीर रचना- भोटिया लोगों की शरीर रचना तिब्बती मंगोलायड प्रजाति से अधिक समानता लिए हुए है। इनका मुख चैड़ा तथा चपटा होता है, नासिका चपटी तथा नेत्र गोल तथा धंसे हुए होते है। त्वचा का रंग पीला तथा शरीर गठीला होता है। बाल काले तथा सीधे होते है। दाढी तथा मूछ में बालों का घनत्व बहुत कम होता है तथा पिंडलियां सुन्दर तथा हष्ट -पुष्ट होती है। अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भोटिया लोगों की शरीर रचना तथा तिब्बत से उनके प्राचीन संबंधों के आधार पर उन्हे मंगोल प्रजाति से संबंधित माना है। प्रसिद्ध मानवशास्त्री एल0पी0 विद्यार्थी ने भी इस जनजाति पर मंगोलायड प्रजाति के प्रभाव को स्वीकार किया है।
भोटिया जनजाति की उपजातियां - भोटिया जनजाति की प्रमुख छः उपजातियां है, जिन्हें क्रमशः शौका, जोहारी, दारमी, तोलच्छा, मारच्छा तथा जाड के नाम से जाना जाता है। इनमें से प्रथम तीन अर्थात शौका, जोहारी, तथा दारमी कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ की निवासी हैं तथा अंतिम तीन अर्थात् तोलच्छा, मारच्छा, तथा जाड गढ़वाल मंडल के जिला चमोली तथा उŸारकाशी में निवास करते हैं।
मारच्छा उपजाति के भोटिया लोग अपने को तिब्बती मानते हैं। तिब्बती लोगों से इनके व्यापारिक संबंध हैं। उन्हीं लोगों में इन लोगों को मारच्छा नाम दिया है। तिब्बती भाषा में घी के लिए मार शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा नमक को च्छा शब्द से जाना जाता है। मारच्छा लोग चाय में घी तथा नमक डालकर पीते हैं। शायद इसी आधार पर तिब्बती लोगों ने इन्हें मारच्छा नाम दिया हो।
तोलच्छा शब्द मारच्छाओं द्वारा उन भोटिया लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है जो मारच्छाओं की बस्तियों से पायः नीचे की घाटियों में निवास करते हैं। यह कहा जाता है कि तोलच्छा का स्तर तथा सम्मान मारच्छाओं की तुलना में कम है। परन्तु, तोलच्छा लोग इस बात को स्वीकार नहीें करते। वे अपने आपको स्थानीय राजपूत कहते हैं और मारच्छाओं से अपने आपको शेष्ठ समझते हैं। यही इन दोनों जनजातियों में वैमनस्यता का कारण है। इसी कारण इन दोनों उपजातियों में खान-पान तथा वैवाहिक संबंध नहीं होता। इनकी भाषा में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।
जाड उपजाति के लोग गंगा नदी की घाटी में निवासित है, इन्हें भोटान्तिक नाम से जाना जाता है। उŸाराखंड की अन्य जनजातियों से अलग इनकी विशेषता यह है कि ये जलवायु परिवर्तन के कारण प्रवासी जीवन व्यतीत करते हैं। मध्य हिमालय क्षेत्र में शीतकाल के दौरान अधिक शीत बढ़ जाने से इन्हें अपना तथा अपने मवेशियों का जीवन - यापन सुचारू रूप से चलान मुश्किल हो जाता है। इस कारण शीत में इन्हें अपना निवास स्थान बदलना पड़ता है। शीत में ये लोग अपने पशुओं के साथ कुछ गर्म स्थानों में निवास करने चले जाते हैं। इनके मूल निवास स्थान को स्थानीय भाषा में ‘मेत‘ तथा जिस स्थान पर शीत ऋतु में ये प्रवासित होते हैं उसे ‘गुनसा‘ कहते है। ‘मेत‘ तथा ‘गुनसा‘ के मध्य की दूरी लगभग 50-60 किलोमीटर होती है जिसे ये लोग लगभग 10 पड़ावों में पूरा करते है।

  
             
सामाजिक जीवन- भोटिया जनजाति का निवास उत्तराखण्ड के ऊँचे हिमशिखरों, खतरनाक ग्लेशियरों, गहरी घाटियों तथा तीव्र गति से बहने वाली नदियों के बीच है। ये ऐसे स्थान हैं जहाँ न तो आधुनिक सुख-सुविधा है न संचार साधन, न यातायात व्यवस्था है, न सड़के है न शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाएं हैं और न ही मनोरंजन के कोई साधन है। इन विषम परिस्थितियों से जूझते हुए भोटिया लोग अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को सहेजते हुए अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
भोटिया जनजाति के लोग ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु के लिए अलग प्रकार के मकानों का निर्माण करते हैं। चूंकि ग्रीष्मकालीन मकानों में उन्हें वर्ष भर अधिक समय तक रहना पड़ता है, इस कारण उनके ग्रीष्मकालीन मकान भवन निर्माण, स्थापत्य और आकार-प्रकार में महत्वपूर्ण होते हैं। ग्रीष्मकालीन मकानों को स्थानीय भाषा में ‘किम’ कहा जाता है। ऐसे मकान दो अथवा तीन मंजिल होते हैं जो किलेनुमा दिखलाई पड़ते हैं। इनमें 16 से लेकर 24 कमरे तक होते हैं। मकान की दीवार 3 से 4 फुट चैड़ी होती है जो पत्थर की बनी होती है। इस प्रकार बने हुए मकान को हिमपात या भूस्खलन से नुकसान नहीं होता है। मकान में रोशनी तथा हवा की पूर्ण व्यवस्था रखी जाती है। प्रत्येक मकान के आगे एक चबूतरा होता है जो उसे लेकर 5 फीट तक की दीवारों से घिरी होती है। नीचे की मंजिल में ये अपने पशु को रखते हैं तथा वहीं भंडार गृह होता है। पहली मंजिल पर रसोई तथा अतिथियों को ठहरने की व्यवस्था होती है तथा दूसरी मंजिल पर ये अपने शयन कक्ष और कुछ उपयोगी वस्तुओं का भंडारण करते हैं। वैसे तो सभी भोटिया जनजातियों के ग्रीष्मकालीन मकान एक ही तरह के होेते है, परन्तु व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति के अनुसार इनमें अन्तर देखा जा सकता है। इन मकानों की मरम्मत प्रतिवर्ष की जाती है।

ग्रीष्मकालीन आवास
भोटिया लोगों के शीतकालीन मकान प्रायः एक मंजिल तथा 2 से लेकर 4 कमरों के स्लेट की ढलुआ छतों तथा पत्थरों की दीवार द्वारा बनाए जाते है। ऐसे मकानों में आंगन की व्यवस्था होती है। वर्तमान समय में ऐेसे मकानों में सीमेंट का प्रयोग भी किया जाने लगा है तथा उनकी देख-रेख तथा साज-सज्जा पर भी विशेष ध्यान दिया जाने लगा है।
शीतकालीन आवास
समाजिक व्यवस्था- हिन्दु धर्म के अनुसार भोटिया जनजाति में कुछ लोग ब्राह्यण कुछ राजपूत, कुछ शूद्र तथा कुछ लोग बौद्ध हैंै। परन्तु व्यावहारिक जीवन में सामाजिक स्तर का आधार सम्पन्नता ही है। शीत क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया लोग गंगा धाटी में रहने वाले भोटियाओं से स्वच्छता की ट्टष्टि से अधिक पिछड़े हुए हैं। एक तो वे लोग पूरे समय अपने पालतू पशुओें के साथ जंगलो में विचरण करते रहते हैं दूसरे उनकी शैच की क्रियाएं भी गंगाधाटी के भोटियाओं से भिन्न है। इस कारण गंगाधाटी के भोटिया इन्हें मारच्छा अर्थात रलेछ कहते हैं।
परिवार- भोटिया जनजाति में आज भी संयुक्त परिवार का प्रचलन है और लगभग तीन पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते हैं तथा संयुक्त रूप से भोजन करते हैं। परिवार की वरिष्ठ महिला सदस्य अपने हाथोें से परिवार के सदस्यों को भोजन परोसती है। उसे स्थानीय भाषा में ‘मुलीन रानी‘ कहा जाता है अर्थात चूल्हे चैकी की रानी। परिवार का मुखिया परिवार का वरिष्ठ सदस्य होता है जिसकी आज्ञा का पालन परिवार के सभी लोग करते है।
परिवार के पुरूष सदस्यों का कार्य पालित पशुओं की देखरेख के साथ धन उपार्जन करना तथा परिवार के लिए भोजन ,वस्त्र तथा मकान आदि की व्यवस्था करना होता है। जबकि óियों का कार्य रसोई तैयार करने के अतिरिक्त कृषि तथा ऊनी वस्त्रों का निर्माण करना है। भोटिया जनजाति में छोटी उम्र में विवाह की परम्परा नहीं हैं क्योंकि ये प्रवासी जीवन का कठिन कार्य छोटी आयु में कष्टकर होता है । वैसे भी शीत क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया लोगों की युवतियों में यौवन का विकास 17 ,18वर्ष की आयु में होता है ।
भोटिया जनजाति के लोगों में प्रत्येक परिवार का गोत्र अलग होता है । हिन्दुओं की तरह इनमें भी भारद्वाज, कश्यप आदि गोत्र पाए जाते हैं। यह समाज पुरूष प्रधान है इस कारण उŸाराधिकार की परम्परा पुरूषों के माध्यम से चलती है । सम्पŸिा में óियों का कोई अधिकार नहीं होता । केवल विधवा óी अपने पति की सम्पŸिा की अधिकारी होती है जो उसके बाद पुत्र को प्राप्त हो जाती है। यदि उसके पुत्र को कोई गोद लेता है तो गोद लेने  वाला व्यक्ति उस सम्पŸिा का अधिकारी हो जाता है।
विवाह- भोटिया जनजाति में विवाह भी महत्वपूर्ण संस्कारों में से है। आज तो इस समाज में युवागृह प्रायः विलुप्त ही हो गए हैं जिन्हें यहां की स्थानीय भाषा में ’रंगबंग’ कहा जाता है। परन्तु , जब वे अस्तित्व में थे तब 10 वर्ष से अधिक आयु के अविवाहित युवक तथा युवतियां उनके माध्यम से ही जीवन साथियों का चयन कर लेते थे । परन्तु वर्तमान समय में भोटिया लोगों में हिन्दुओं की प्रथानुसार ही विवाह सम्पन्न होंने लगे है ।
मारच्छा ,तोलच्छा तथा जोहरी उपजाति के भोटिया लोग अपने लडके तथा लडकियों के लिए स्वयं ही विवाह संबंध निश्चित करते हैं । जबकि जाड भोटिया युवतियों के लिए स्वतंत्रता है कि वे अपने पति का चयन खुद कर सकती है । भोटिया लोगों में विवाह की प्रथा दो प्रकार की देखी जाती है जिसे ’तत्सत’ और ’दमोला’ के नाम  से जाना जाता है। ’तत्सत’ प्रथा के अनुसार वर बारात लेेकर कन्या के घर जाता है तथा ’दमोला’ प्रथा में बाराती बिना वर के वधु को वर के घर पर ले आते हैं । इसके अतिरिक्त यदि वर के पास विवाह खर्च के रूप में धन नहीं है तो वह अपने साथियों की सहायता से अपनी प्रेमिका का हरण भी कर सकता है तथा ऐसे विवाह को समाज की स्वीकृति भी मिल जाती है।
विवाह संबंध स्थापित करने के लिए लड़के के परिवार वाले कन्या पक्ष के घर प्रस्ताव लेकर जाते हैं और कन्या पसंद होने पर शादी तय कर लेते है। शादी का मुहूर्त उनका निजी देवता जिसे वे ’पाश्वा’ कहते हैं, वह तय करता है। 
विवाह का समस्त खर्च वर पक्ष को वहन करना पड़ता है। दोनों पक्षों की वार्ता के अनुसार विवाह के पूर्व ही वर पक्ष वधु के लिए सोने-चांदी के जेवरात सुपुर्द कर देता है। कन्या पक्ष के घर पर विवाह की सम्पुर्ण कार्यवाही सम्पन्न होने के पश्चात् बारात वधु को लेकर वर पक्ष के घर लौट आती है।
नातेदारी- भोटिया जनजाति में अपने से बड़ों का आदर सम्मान करना एक परम्परागत विशेषता है। इस जनजाति में परिवार से बाहर भी समाज के लड़के-लड़कियों में भाई-बहन के संबंध होते हैं। लड़कियां भी लड़कों से अधिक घुलमिल कर बातें नहीं करतीं, उनमें लाज की भावना स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि इस समाज में चरित्रहीन अपराध अपवाद के रूप में है। परिवार में देवर भाभी तथा जीजा साली के बीच परिहास संबंध पाए जाते हैं। स्त्रियां अपने पति के बड़े भाई अर्थात् जेठ से परिहास संबंध तो रख सकती हैं परन्तु, उन्हें छूना वर्जित है। पति अपनी पत्नी या पत्नी अपने पति का नाम लेकर संबोधित नहीं करते वरन् अपने बच्चों के नाम से उन्हें बुलाते हैं। स्त्रियां अपने जेठ तथा ससुर से पर्दा करती हैं। इस प्रकार भोटिया समाज में स्वजन प्रथा एक संगठनात्मक सिद्धान्त के रूप में प्रभावी है।
महिलाओं की स्थिति - भोटिया जनजाति समाज में महिलाओं तथा पुरूष को समान अधिकार हैं। वे पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर परिवार चलाती हैं। अन्य जनजातीय समाजों की तुलना में भोटिया महिलाओं को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है। चुंकि यह प्रवासी समाज है अतः मैत और गुनसा का सारा कार्यभार महिलाओं पर ही निर्भर करता है। बच्चों के पालन पोषण से लेकर कृषि तथा व्यापारिक लेन-देन का कार्य महिलाएं ही करती हैं इनमें प्रदा प्रथा भी नहीं है। वे मितव्ययी होती हैं तथा उनी वस्त्रों के निर्माण कार्य से अच्छा धन कमा लेती हैं। अतः परिवार के भविष्य के लिए वे धन का संचय करना अच्छी तरह से जानती हैं। स्वालम्बी होने के साथ-साथ अपनी सूझ -बूझ से कार्य करने की उनमें विलक्षण क्षमता होती है। इस समाज में महिलाओं को उचित सम्मान तो प्राप्त है, परन्तु, शिक्षा की दृष्टि से वे अन्य समाजों की महिलाओं से अत्यधिक पीछे हैं। परिवार में लड़कों को ही शिक्षा में अधिक महत्व दिया जाता है। 

सांस्कृतिक लक्षण - आधुनिकता तथा पश्चिमीकरण की होड़ से दूर भोटिया जनजाति के लोग आज भी अपने सांस्कृतिक मुल्य, प्रथाओं और परम्पराओं को सहेजते हुए विषम परिस्थितियों में भी हंसते, मुस्काराते जीवन यापन कर रहे हैं।
वेषभूषा - प्राचीन समय से ही लोग शीत कालीन क्षेत्रों में रहते हैं। इस कारण शीत से बचाव के लिए वे उनी वस्त्र ही शरीर पर धारण करते हैं। ऐसे वस्त्र वे भेड़ के ऊन को अपने हाथों से कातकर तथा बुनकर तैयार करते हैं। भोटिया पुरूष पायः कमीज, चूडी़दार ऊनी पायजामा, बंद गले का कोट तथा सिर पर ऊनी टोपी पहनते हैं। यदि इस पहनावे में कोई परिवर्तन हुआ है तो इतना ही कि पूर्व में लोग टोपी के स्थान पर पगड़ी बांधते थे।  स्त्रियाँ भी परम्परागत वस्त्र धारण करती हैं। वे कमीज, उसके ऊपर गर्म आंगड़ा तथा सिर पर ऊनी टोपी पहनती हैं। कुछ स्त्रियाँ टोपी के स्थान पर एक लम्बी चादर सिर पर बांधती हैं जो पीछे की ओर उनकी पीठ पर लटकी रहती है। नीचे के वस्त्रों में स्त्रियां पेटीकोट के स्थान पर बड़ा घाघरा तथा धोती के स्थान पर गर्म चादर का प्रयोग करती हैं। कुछ स्त्रियाँ माथे पर एक पट्टा भी पहनती हैं जिसे स्थानीय भाषा  में ‘घुघटवा‘ कहा जाता है। इस घुघटवा पर विशेष प्रकार की सुनहरी कढ़ाई की जाती है जिससे यह चमकीला हो जाता है।
आभूषण- उपरोक्त पहनावे के साथ भोटिया स्त्रियाँ विविध प्रकार के आभूषण भी धारण करती हैं जो उनके सौंदर्य को बढाते है। ये आभूषण सोेने अथवा चांदी के बने होते हैं, जिन्हे वे नाक, कान, गले तथा हाथों में धारण करती हैं। वर्तमान समय के अनुसार भोटिया स्त्रियाँ चांदी के बने आभूषण जैसे - मुर्खला, नाक की फूली,गले का हंसला तथा हाथ की चूड़ी व कड़े पहनना ही अधिक पंसद करती है। पुरूष आभूषण के नाम पर सिर्फ अंगूठी ही पहनते है जो अभिमंत्रित होती है।

खानपान-  जिन क्षेत्रों में भोटिया निवास करते हैं वहाँ कम मात्रा में कृषि होती हैं। इन लोगों की कृषि में जौ, फाफर, आलू राजमा, फर्न, महुआ, झंगोरा तथा उवाचूहा ही प्रमुख है। निचले क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया लोग मिर्च, हल्दी, लौकी, कचालू आदि सब्जियों को पैदा करते हैं। कृषि कम होने के कारण ये लोग बाहर से आए हुए अनाज को खरीदते हैं। अलग-अलग स्थान पर निवासित भोटिया लोगों के खान-पान में भी अंतर पाया जाता है। शीत जलवायु में रहने के पश्चात् भी ये लोग चावल खाना अधिक पसंद करते है। वैसे तो पहले इन लोगों में मांस खाने का प्रचलन अधिक था परन्तु वर्तमान में इनके पालित पशु, भेड़ बकरी की संख्या कम हो जाने के कारण मांस खाने की प्रवृत्ति में कमी आई है। परन्तु, शिकार किए गए जंगली जानवरों जैसे हिरण बारहसिंगा जंगली सुअर आदि के मांस को ये रूचिपूर्वक खाते है। इसके साथ-साथ महुआ, कोदे की बनी रोटी और सत्तू का प्रयोग ये अधिक करते है। इस जनजाति के लोगो के द्वारा खाये जाने वाला लोेकप्रिय भोजन कुकला है।
भोटिया लोग अपनी विशेष प्रकार की चाय के लिए प्रसिद्ध हैं जो पौष्टिक तथा गुणकारी है। इसे तैयार करने मे वे घसेर वृक्ष की छाल को पीसते हैं उसे पानी मे उबालकर बांस के लगभग 3फीट लम्बे टुकड़े में डाल देते है। फिर उसमें नमक, घी तथा अन्य जड़ी बूटियां मिला कर चाय तैयार करते है। तत्पश्चात् उसे बांस के टुकड़े से निकालकर पुनः गर्म करते हैं तथा सत्तू अथवा चावल के बने हुए बड़े के साथ बड़े चाव से पीते है।
शीत क्षेत्रों में रहने के कारण भोटिया लोग शराब पीने के भी शौकीन है। इस समाज में इस आदत को बुरी दृष्टि से नहीं देखा जाता। अतिथि सत्कार में मदिरा तथा मांस कों शिष्टाचार के रूप में जाना जाता है। धार्मिक पूजन, शुभ कार्यों, शादी-विवाह तथा अन्य उत्सवों , त्यौहारों पर मांस मदिरा का प्रयोग  आवश्यक माना जाता है। भोटिया लोग महुए तथा जौ से शराब का निर्माण स्वंय ही करते है।
कलात्मकता-भोटिया जनजाति के लोग सभी प्रकार की कलाओं में पारंागत है। उनकी चित्रकला काष्ठकला तथा प्रस्तर कला सभी पर पकड़ है। उनके घरों की दीवारों पर बने अनेक प्रकार के चित्रों तथा चिहनों से कला के प्रति उनका सम्मान स्पष्ट दिखलाई पड़ता  हैं। कांच पर पेंट की गई उनद्वारा चित्रकारी जिनमें वे फूल पत्तियों आदि का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हैं अदभुत है। बच्चे छोटी अवस्था से ही चित्रकारी करना सीख जाते हैं। इनकी चित्रकारी का नमूना इनद्वारा निर्मित  किए गए कालीनों में स्पष्टतया दिखलाई पड़ती हैं। कालीनों पर वे ग्राफ द्वारा भांति-भांति के फूल  पत्ती पशु पक्षियों की आकृतियों का अंकन करते हैं। वस्तुओं को रंगने  में ये लोग पेन्ट तथा रंग  दोनों का उपयोग करते हैं। इनद्वारा अधिकांशतः सफेद काला लाल नीला पीला तथा कत्थई रंग का प्रयोग अधिक किया जाता है। उनी वस्त्रों को रंगने के लिए ये प्रायः जड़ी-बूटियों से रंग तैयार करते हैं। जड़ी बूटियों में प्रायः आंवला अखरोट किरमोड़ ब्रजमांग डोलू आदि को दरदरा पीसकर अलग-अलग उबाला जाता है तथा उन्हें छानकर अलग-अलग प्रकार का रंग तैयार कर लिया जाता है।
भोटिया जनजातियों में लोकगीत तथा लोकनृत्यों की परम्परा उनके इस स्थान पर बसने के समय से ही चली आ रही है। लोकगीतों के गायन में स्त्रियां प्रायः समूह में गाना पसंद करती हैं जबकि पुरूष युगल रूप में कान के पास हाथ रखकर उंचे स्वर में गाते हैं। इनके लोकगीतों में पे्रमगीत ऐतिहासिक गीत तथा देशभक्ति के गीत प्रमुख हैं। इन लोगों द्वारा सामाजिक धार्मिक प्रमुख त्योहारों तथा शादी-विवाह के अवसरों पर लोकनृत्यों तथा नाटकों का आयोजन किया जाता है जिसमें समाज के सभी लोग पूर्ण आस्था के साथ भाग लेते हैं। इनके लोक नृत्यों में चार प्रकार के लोक नृत्य प्रमुख हैं जिनका अलग-अलग अवसरों पर आयोजन किया जाता है। पौड़ा नृत्य विवाह के अवसर पर आयोजित किया जाता है। सरे नृत्य को भी शादी-विवाह के अवसर पर ही किया जाता है। यह पौड़ा नृत्य से इस प्रकार भिन्न है कि इसे तीव्र गति के साथ किया जाता है। पांडव नूत्य का आयोजन दुर्गा अष्टमी के दिन किया जाता है। इसी प्रकार बरइवाल नृत्या का आयोजन कृष्ण तथा महाशिवरात्रि पर्व पर किया जाता है।
भाषा - भोटिया जनजाति के लोगों की भाषा में भी विविधता स्पष्ठ रूप से दिखलाई पड़ती है। तोलच्छा भोटिया तोलच्छा बोली बोलते हैं जो गढ़वाल के अन्य भागों के लोगों की बोली से समानता दर्शाती है। मारच्छा भोटिया लोगों की भाषा मारच्छा है। इस भाषा पर तिब्बती भाषा का प्रभाव स्पष्ठ दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त जाड भोटिया लोगों की भाषा का स्थानीय भाषा में ’रागवा’ कहते हैं। यह भाषा भी कुछ सीमा तक तिब्बती भाषा से मिलती है। परन्तु, इस भाषा को नाक की सहायता से बोलना पड़ता है।
आर्थिक जीवन - भोटिया जनजाति का जिस क्षेत्र में निवास है वहां की भौगोलिक स्थिति ने भोटिया लोगों के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। ऊंचे पहाडों़ पर निवासित तथा शीत की अधिकता के कारण भोटिया लोगों की आर्थिक स्थिति का आधार कृषि कार्य कभी नहीं हो सकता। उनके निवास के पास का क्षेत्र पत्थरों से निर्मित है जहां पर कृषि कार्य करना असंभव है। इसके साथ ही भोटिया लोग ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल में प्रवासी जीवन व्यतीत करते हैं। इस कारण कृषि कार्य करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इसके विपरीत उंचे पहाडों़ पर स्थित चारागाहों जहां चारे की व्यवस्था आधिक में थी, उसने भोटिया लोगों को एक पशुपालक जाति के रूप में विकसित कर दिया। पशुओं ने भोटिया लोगों के व्यवसाय में मदद की। इसके साथ हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं से पैदल मार्ग से तिब्बत पहुंचने की सुगमता ने इन लोगों को तिब्बत के साथ व्यापार करने में मदद की और इस तरह यह जनजाति एक व्यापारिक जनजाति के रूप में विकसित हुई। 
भोटिया जनजाति के अतीत का आर्थिक पक्ष जितना रोचक है वर्तमान उससे कहीं ज्यादा चिन्ताजनक है। प्राचीन काल में भोटिया लोगों के व्यापार की सर्वत्र चर्चा थी। ग्रीष्मकाल प्रारम्भ होते ही ये अपने व्यापार की तैयारियां प्रारम्भ कर देते थे। देश से एकत्र की गई सामाग्री को ये लोग अपने पशुओं पर लादकर पैदल मार्ग से तिब्बत और वहाँ से भी आगे मध्य एशिया तक पहुँचते थे तथा अपने साथ लाई गयी वस्तुओं का व्यापार करते थे। परन्तु, उनका व्यापान के लिए जाना जोखिम भरा था क्यों कि रास्ते में तिब्बत के डाकुओं का भय रहता था। इससे बचने के लिए ये घोड़े, तलवार तथा देशी आग्नेयअस्त्र अपने साथ लेकर जाते थे। डाकुओं के आक्रमण से अनेक व्यापारी मारे भी जाते थे तथा डाकू उनका धन छीन लेते थे।
सन 1950 मंे चीन द्वारा तिब्बत को अपने देश का भाग घोषित करने के फलस्वरूप भोटिया जनजाति का व्यापार अधिक प्रभावित हो गया। इसके पश्चात् सन 1962 में भारत तथा चीन के बीच युद्ध हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत से लगी तिब्बत सीमा  को व्यापार के लिए बंद कर दिया गया। इस तरह भोटिया लोगों का व्यापार पूरी तरह बंद हो गया वे पूरी तरह से असहाय हो गए और उनकी आर्थिक स्थिति पूर्णरूपेण डांवाडोल हो गई।
जीविका के साधन पूरी तरह से बंद हो जाने के कारण उन्हे ऊन, ऊन से बने वस्त्र तथा पशुपालन को ही मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाना पड़ा। शीतकाल प्रारम्भ होने के पहले ही ये देश के सुदूर भागों में ऊन से बने वस्त्रों को लेकर पहुँचते हैं तथा वहाँ उनका विक्रय करके उन्हे जो आय होती है, उससे अपनी दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं को क्रय करके वापस अपने घरों को लौट जाते है।


वैसे तो जिन स्थानों पर भोटिया लोगों का निवास हैं वहाँ की भूमि कृषि के लिए उपयुक्त नही है। परन्तु फिर भी इनके निवास के पास की भूमि में ये लोग बड़े परिश्रम के साथ कुछ कृषि कार्य भी करते है। अपने पालित पशुओं, भेड़, बकरियों के मल-मूत्र को वे खाद के रूप में प्रयोग करके थोड़ा सा अनाज प्राप्त कर लेते है। कुछ भोटिया लोगों ने अपने घरों के पास बचीगे भी लगा लिए हैं जिसमें उन्होने सेब, नाशपति, पुलम, अनार आदि वृक्षों को लगाया है। इनमें से सेब का उत्पादन अधिक मात्रा में होता है। जिसे ये लोग जोशीमठ के बाजार में जाकर बेचते है।
प्राचीन समय में भोटिया लोगांें की आर्थिक स्थिति अत्यधिक सुदृढ थी तथा वे सम्पन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। वर्तमान समय में उनकी आर्थिक स्थिति शोचनीय है।
राजनैतिक जीवन - भोटिया जनजाति के राजनैतिक जीवन का मुख्य आधार ग्राम पंचायत है। ग्राम पंचायत के माध्यम से ही स्थानीय ग्राम का प्रशासन संचालित होता है। ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी समिति होती है। ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव स्थानीय लोगों के बीच से किया जाता है। ग्राम सभा का प्रधान तथा उपप्रधान ग्राम पंचायत के पदाधिकारी होते हैं। पंचायत के सदस्यों का चुनाव नियमों के अनुसार पंाच वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है। ग्राम सभा के सभापति का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है तथा ग्राम सभा के उपसभापति का चुनाव ग्राम पंचायत के सदस्यों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इन्हीं में न्याय पंचायत के लिए सदस्य चुने जाते हैं जिन्हें पंच कहा जाता है। पंचो की संख्या का निर्धारण ग्राम की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। भोटिया जनजाति में पंचों को बडे़ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ग्राम के किसी भी विवाद में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ग्राम के किसी भी विवाद को ध्यानपूर्वक सुनते हैं तथा आपस में विचार विमर्श करके उस पर निर्णय करते हैं। उन द्वारा दिए गए निर्णय को दोनों पक्षों को स्वीकार करना पड़ता है।
सन् 1962 में भारत सरकार ने सीमांत क्षेत्र होने के निवासी होने के कारण भोटिया जनजाति के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया है। बाहरी लोगों के निरन्तर सम्पर्क में आने के कारण इनमें राजनैतिक चेतना का प्रयाप्त संचार हुआ है। आज ये लोग देश के मतदान में पर्याप्त रूचि लेते हैं तथा इस जनजाति के अनेक लोग राजनैतिक दलों से भी संबद्व है।
धार्मिक जीवन - भोटिया जनजाति के लोग हिन्दू धर्म तथा परम्पराओं का पालन करते हैं। यद्यपि ये लोग तिब्बत के रास्ते यहां आये हैं परन्तु, इन पर तिब्बती धर्म का प्रभाव लेषमात्र ही दिखाई पड़ता है। वहां के धर्म और संस्कारों से ये बिल्कुल भी परिचित नहीं हैं। इनमें शादी विवाह, संस्कार आदि सभी धार्मिक क्रियायें हिन्दू धर्म के अनुसार ही संपादित की जाती है और अपने को हिन्दू कहने पर गर्व का अनुभव करते हैं। इनके शरीर पर जनेऊ तथा सिर पर चोटी स्पष्ठ रूप से देखी जाती है।
कुछ थोडे़ से जाड़ भोटिया बौद्व धर्म के अनुयायी हैं। वे अपने घरों में बौद्व धर्म से संबधित झंडा लगाते हैं जिसे स्थानीय भाषा में ’’लंगूता’’ कहा जाता है। इसके साथ वे चोरतेन की परिक्रमा करते हैं तथा गोम्बा में प्रणाम करते हैं। इतना सब करने के बाद भी उनमें हिन्दू धर्म के प्रति सम्पूर्ण आस्था है। ये बौद्व लामाओं की पूजा करते हैं तथा अन्य पारिवारिक मांगलिक कार्यों को हिन्दू ’पंडितों’ से सम्पन्न करवाते हैं।  
लंगूता
त्योहार -हिन्दुओं में हर्षोल्लास से मनाए जाने वाले प्रमुख चार त्योहारों के प्रति भोटिया लोगों की कोई आस्था नहीं है।  इन द्वारा मनाए जाने वाले त्योहार स्थानीय होते है। जिन्हे ये विशेष प्रयोजन वश मनाते है। इस जनजाति में मनाए जाने वाले प्रमुख तीज त्योहार है-
1. लाक्ष्या - इसे वे नन्दादेवी का पर्व मानते है। शीतकालीन ऋतु प्रारम्भ होने के पहले अक्टूबर महीने में जब ये अपना मूल ग्राम छोड़कर प्रवास के लिए निकलते है, तब इस त्योहार को मनाया जाता है। इस त्योहार को वे सामूहिक रूप से नृत्य तथा गायन के साथ सम्पन्न करते है। तथा देवता को बकरे की बलि भी दी जाती है। इस त्योहार के पीछे जो मूल भावना है वह यह है कि वे नन्दा देवी उन्हे आशीर्वाद दें जिससे वे बिना किसी विघ्न -बाधा के कुशलता पूर्वक निर्धारित स्थानों तक पहुँच सकें।
2 आसाढ़ संक्रान्ति- यह त्योहार ग्रीष्मकाल के समय आसाढ़ माह में जब वे प्रवास के पश्चात् अपने मूल धरों को वापस लौट आते हैं, तब मनाते हैं। उस समय ये लोग अपने देवी-देवताओं को डोली बनाकर जिसे स्थानीय भाषा में ’लगाद’ कहा जाता है धर पर नाचकर तथा उंचे स्वर में गायन करके सम्पन्न करते हैं। इस समय पर ग्राम निवासी एक- दूसरे के घर प्रसन्नतापूर्वक भोजन करते हैं।
3 विखोद- इस त्योहार का आयोजन वे चैत्र माह में करतें हैं जब ये लोग अपने अस्थायी प्रवासों से अपने मूल घरों को लौटने की तैयारी करते हैं तो अस्थायी प्रवास स्थल पर ही इस त्योहार का आयोजन करतें हैं। यह त्योहार उनके हर्ष और उल्लास का त्योहार है।
  इन त्योहारें के अतिरिक्त भोटिया लोगों में प्रतिवर्ष कुछ धार्मिक उत्सवों का आयोजन भी किया जाता है जिसमेें माटी पूजा, व्यास उत्सव तथा लोहासटी प्रमुख हैं। माटी पूजा उत्सव भूमि पूजने से संबंधित है। इस प्रकार के उत्सव का आयोजन भोटिया लोग कृषि कार्य प्रारम्भ करने अथवा मकान का निर्माण शुरू करने के पहले करते है। व्यास पूजा उत्सव का आयोजन व्यास नदी के पास रहने वाले भोटिया लोग भाद्र मास की पूर्णिमा पर आयोजित करते है। वहां के गुन्जी ग्राम के मनीला मैदान पर एक विशाल मेला का आयोजन किया जाता हैंै जिसका शुभारंभ व्यास पूजा के बाद किया जाता है। तीसरा उत्सव लोहासटी जाड भोटिया लोगों का वार्षिक उत्सव है, जिसमे एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है तथा जाड भोटिया लोग उसमें शमिल होकर धूम-धूम से मानते हैं।
सन् 1962 के चीन-भारत युद्ध ने भोटिया जनजाति के लोगों के ऊन उद्योग को भारी नुकसान पहुँचाया है। भारत और तिब्बत के बीच व्यापार पर पाबंदी लग जाने के कारण इन लोगों को अच्छे किस्म की ऊन मिलना बंद हो गया और उनकी आर्थिक स्थिति डगमगा गई। फिर भी उन्हे अपना जीवन निर्वाह तो करना ही था अतः उन्होने  अपने पशुओं से प्राप्त ऊन से ही इन उद्योग को अनवरत चालू रखा। उन्होने अपने ऊन से ही शाल, कम्बल, कालीन, लवा आदि वस्त्रों का निर्माण जारी रखा। वे वस्त्र बनाने की कला में तथा उनमें विभिन्न प्रकार की डिजाइनों से सुन्दर स्वरूप देने में माहिर थे। इस कारण उनके वस्त्र लोकप्रिय तो हुए परन्तु उनकी कीमतों में वृद्धि हो गई। देश की सीमा क्षेत्रों में निवासित होने के कारण भारत-चीन युद्ध के उपरान्त भारत सरकार ने इन लोगों के विकास पर विशेष ध्यान दिया है। सन् 1967 में भारत सरकार ने इन लोगो के विकास  पर विशेष ध्यान दिया है। सन्् 1967 में भारत सरकार ने इन लोगों को जनजाति का दर्जा दिया तथा तब से इनके स्थानों पर अनेक कल्याणकारी योजनाओं की शुरूआत की ।इन द्वारा हाथों से निर्मित ऊनी वस्त्रों की कीमत मिल से बने वस्त्रों की कीमतों से अधिक होती है, जिस कारण इन्हे अपने वस्त्रों का विक्रय करने में कठिनाई होती थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इनके लिए सरकारी विपणन केन्द्रों की स्थापना की है। उन केन्द्रों द्वारा भोटिया लोगों द्वारा बनाए गए वस्त्रों को क्रय कर लिया जाता है तथा बाद में उन्हे विक्रय करने की जिम्मेदारी केन्द्रों की होती है। भोटिया निवासित क्षेत्रों में सरकार ने कई प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना भी की है जहाँ वहाँ के निवासियों को आधुनिक ऊनी वस्त्रों के निर्माण, आकर्षक डिजाइनों वाले कालीनों तथा नए डिजाइन के ऊनी वस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके अतिरिक्त भी सरकार द्वारा इनके क्षेत्र में अनेक प्रतिष्ठानों की स्थापना की गई। जिनमें जनजाति विकास निगम, राजकीय व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र, उद्योग विभाग, खादी ग्राम उद्योग बोर्ड़ तथा गांधी आश्रम प्रमुख है।

जनजाति  विकास निगम की स्थापना देहरादून में की गई जो कि सहकारी समितियों के माध्यम से उनके उत्पादों का क्रय करता है तथा जनजातियों के उत्पादन वृद्धि करने के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान करता है। राजकीय व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों के माध्यम से इस जनजाति के लोगों को कताइ, बुनाई, रंगाई तथा विभिन्न प्रकार की डिजाइनों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उद्योग विभाग द्वारा व्यावसायिक प्रशिक्षण के दौरान तैयार की गई वस्तुओं को एकत्र करके विभिन्न बिक्री केन्द्रों में भेजा जाता है। खादीग्राम उद्योग बोर्ड भोटिया लोगों को कच्चा ऊन उपलब्ध कराता है जो उसे कातकर तथा बुनकर तैयार करते है और इस उत्पादित सामग्री को वे विभिन्न केन्द्रों पर बिक्री हेतु भेजते है। गांधी आश्रम के विभिन्न केन्द्र भी भोटिया निवासित क्षेत्रों में स्थापित है। इन केन्द्रों पर खादी के अतिरिक्त ऊनी वस्त्रों का क्रय - विक्रय किया जाता है। भोटियाॅ जनजाति की महिलाए ही नही बल्कि उनी कार्य में भोटिया पुरुष भी सहयोग करते है।

निष्कर्ष- जनजाति को सामान्यतः उनके पिछड़े होने के कारण तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से तत्कालीन यूरोपियन समाजों से हीन होने के कारण अलग किया गया था। भोटिया जनजाति के लोग सामान्यतः बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं परन्तु ये देवी-देवताओं की भी आराधना करते हैं। इन लोगों की उत्पत्ती तिब्बती मार्ग से आने वाले मध्य एशिया के लोगों से हुयी है। इन जनजाति के लोगों का सामान्य निवास स्थान नदियों के तट पर रहता है। भोटिया जनजाति के अतित का आर्थिक पक्ष जितना रोचक है, वर्तमान उससे कहीं ज्यादा चिंताजनक भी है। इस जनजाति के अनेक लोगों का राजनैतिक दलों से भी संबद्ध है। ये लोग ऋतु परिवर्तन के साथ अपना निवास स्थान परिवर्तित करते हैं। इस जनजाति के लोगों का व्यवसाय उनी उद्योग का कार्य करना है। ये हिन्दू धर्म तथा परम्पराओं का पालन भी करते हैं। इस जनजाति समाज में महिला तथा पुरूष को समान अधिकार दिया जाता है। अन्य जनजाति समाजों की तुलना में भोटिया महिलाओं को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है।
सन्दर्भ-
1.    विद्या सिंह चैहान, उपाचार्य, मानव विज्ञान विभाग, हेमवती नन्दन बहुगुणा विश्व विद्यालय श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड: भारत की जनजातियाँ
2.    श्रीमती श्रीराय, उपाचार्य, मानव विज्ञान विभाग, ए0पी0 सेन मेमोरियल कन्या महाविद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेश: भारत की जनजातियाँ (उत्तराखण्ड के विशेष सन्दर्भ में)


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